राजस्थान की इकलौती महिला तोपची: फौजिया खान की अनूठी परंपरा
Edited By : हरि प्रसाद शर्मा
मार्च 29, 2025 20 :41 IST
टेलीग्राफ टाइम्स
अजमेर। राजस्थान के अजमेर में रमजान के दौरान सेहरी और इफ्तार का समय किसी घड़ी या अलार्म से तय नहीं होता, बल्कि एक तोप के धमाके से इसकी घोषणा होती है। इस ऐतिहासिक परंपरा को निभाने वाली शख्सियत हैं फौजिया खान, जिन्हें लोग फौजिया तोपची के नाम से जानते हैं। वे राजस्थान की इकलौती महिला तोपची हैं और अपने पूर्वजों की सात पीढ़ियों से चली आ रही इस परंपरा को आगे बढ़ा रही हैं।
तोप दागने की परंपरा और प्रक्रिया
फौजिया खान और उनके भाई मुहम्मद खुर्शीद रमजान के दौरान तीन बार तोप दागते हैं—एक बार सेहरी के लिए और दो बार इफ्तार के समय।
- तोप भरने की प्रक्रिया: फौजिया अपने पांच किलो वजनी हथौड़े से तोप में बिजली बारूद भरती हैं, फिर गोबर के उपलों से नाल को बंद करती हैं।
- संकेत मिलने पर फायर: सेहरी के समय 3:30 बजे और इफ्तार के समय महफिलखाने की खिड़की से झंडे और टॉर्च का इशारा मिलता है, तब फौजिया अगरबत्ती से पलीते को जलाकर तोप दागती हैं।
- धमाके की गूंज: तोप के धमाके की आवाज पूरे अजमेर शहर में गूंजती है और इसी के साथ सेहरी या इफ्तार की शुरुआत होती है।
खास आयोजनों में तोप दागने की परंपरा
रमजान के अलावा फौजिया दरगाह से जुड़े अन्य बड़े आयोजनों में भी तोप दागती हैं, जिनमें जुम्मा, ईद, बकरीद और उर्स प्रमुख हैं।
- ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती की पैदाइश पर 21 तोपों की सलामी दी जाती है।
- गरीब नवाज के उर्स की शुरुआत 25 तोपों की सलामी से होती है।
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पारिवारिक विरासत और जिम्मेदारी
फौजिया खान का परिवार पीढ़ियों से यह जिम्मेदारी निभा रहा है।
- आठवीं पीढ़ी: फौजिया के पूर्वजों के पास पहले एक क्विंटल वजनी पहियों वाली तोप थी, लेकिन प्रशासन ने बढ़ती आबादी को देखते हुए अब एक छोटी और कॉम्पैक्ट तोप दी है।
- बचपन से शुरुआत: फौजिया ने 8 साल की उम्र में अपने पिता मुहम्मद हनीफ की देखरेख में पहली बार तोप चलाई थी।
- 30 साल का अनुभव: आज वे इस काम को तीन दशकों से कर रही हैं।
- जिम्मेदारी का भाव: फौजिया का मानना है कि तोप चलाना उनका शौक नहीं, बल्कि खानदानी जिम्मेदारी है।
कठिन परिस्थितियों में भी निभाई जिम्मेदारी
फौजिया के परिवार में यह परंपरा इतनी महत्वपूर्ण है कि घर में जनाजा होने के बावजूद भी पहले तोप दागी जाती है।
- भावनाओं से ऊपर कर्तव्य: 18 साल पहले, जब उनकी 10 साल की भतीजी का इंतकाल हुआ, तब भी उन्होंने पहले तोप चलाई और फिर अंतिम संस्कार में शामिल हुईं।
कानूनी प्रक्रिया और सुरक्षा नियम
तोप दागने की प्रक्रिया को कानूनी मंजूरी की आवश्यकता होती है।
- दरगाह कमेटी को कलेक्टर से अनुमति लेनी होती है।
- यह परमिशन थाने में सर्किल इंस्पेक्टर को दिखानी होती है।
- बारूद की परमिट दरगाह के नाजिम से लिखवानी पड़ती है।
- ब्यावर के पास के गांव से बारूद लाया जाता है और पूरे महीने के लिए 4-5 किलो बारूद इकट्ठा किया जाता है।
- रमजान के दौरान तोप फौजिया के घर पर रहती है, लेकिन हर जुम्मे के दिन इस्तेमाल के बाद इसे दरगाह थाने की त्रिपोलिया गेट पुलिस चौकी में जमा कराना पड़ता है।
आर्थिक स्थिति और सरकारी सहायता
फौजिया खान के परिवार को यह कार्य करने के लिए दरगाह से बारूद सरफा नामक तयशुदा राशि मिलती है।
- पहले उनके पिता को ढाई रुपये मिलते थे।
- अब यह राशि 3,000 रुपये प्रति महीना हो गई है।
- इसके अलावा 5,000 रुपये सालाना मेडिकल सहायता भी दी जाती है।
सम्मान की कमी का दर्द
फौजिया खान को समाज में वह पहचान और सम्मान नहीं मिल पाया, जिसकी वे हकदार हैं।
- वे कहती हैं कि “लड़कियां हवाई जहाज उड़ाती हैं, गाड़ियां चलाती हैं, खेलों में भाग लेती हैं और उन्हें सम्मान मिलता है। लेकिन मैं अकेली महिला तोपची होने के बावजूद वह मान्यता नहीं पाती।”
- हालांकि वे कहती हैं कि गरीब नवाज ने जो दिया है, उसके लिए शुक्रगुजार हूं।
नई पीढ़ी को सिखाने का संकल्प
अब फौजिया अपनी नौ साल की भतीजी सहर को भी यह परंपरा सिखा रही हैं।
- वे कहती हैं, “मैं खानदान की पहली लड़की थी जिसने तोप चलाई, लेकिन आखिरी नहीं होऊंगी।”
- वे अपनी विरासत को आगामी पीढ़ी तक पहुंचाने के लिए प्रतिबद्ध हैं।
फौजिया खान का जीवन साहस, समर्पण और परंपरा के प्रति निष्ठा का प्रतीक है। वे न सिर्फ अपनी खानदानी जिम्मेदारी निभा रही हैं, बल्कि इस विरासत को नई पीढ़ी तक भी पहुंचा रही हैं। चाहे समाज की रूढ़ियां हों या सम्मान की कमी, फौजिया ने हर चुनौती का सामना किया है और अजमेर की इस ऐतिहासिक परंपरा को जीवित रखा है।